How did the election campaigns be banned?
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चुनावी रेवड़ियों पर रोक कैसे लगे?

How did the election campaigns be banned?

How did the election campaigns be banned?

भारतीय चुनाव आयोग ने भारत के राजनीतिक दलों की हवा खिसका दी है। उसने तय किया है कि अपने चुनावी घोषणा पत्रों में हमारे राजनीतिक दल मतदाताओं के लिए जो चूसनियां लटकाते हैं या उन्हें रेवाड़ियां परोसते हैं, उनका हिसाब भी उनसे मांगा जाए याने उन्हें यह बताना होगा कि जितना पैसा उस खैरात को बांटने में लगेगा, वह कितना होगा और उसे वे कैसे जुटाएंगे? जाहिर है कि हमारे विरोधी दल इस घोषणा मात्र से ही घबरा गए है।

वे चुनाव आयोग पर ही हमला करने पर उतारु हो गए हैं। वे सवाल उठा रहे हैं कि चुनाव आयोग का काम चुनाव करवाना है या राजनीतिक दलों को लंगड़ा करना है? ये नेता यह नहीं बता पा रहे हैं कि अपनी रेवाड़ियों का खर्च और आमदनी का रहस्य खोलने पर वे अपंग कैसे हो जाएंगे? नेता लोगों में इतनी योग्यता नहीं होती कि वे इन रेवड़ियों का हिसाब-किताब खुद समझ सकें या लोगों को समझा सकें। वे तो ऐसे टेढ़े कामों के लिए नौकरशाहों पर ही निर्भर होते हैं। लेकिन असली सवाल यह है कि इस प्रावधान से वे इतने परेशान क्यों हैं? क्योंकि वे अभी विपक्ष में हैं। कोई भी नौकरशाह उन्हें घांस क्यों डालेगा? इसीलिए वे बौखलाए हुए हैं।

जहां तक भाजपा का सवाल है, इस मामले में वह चुप है, क्योंकि उसे अपनी रेवड़ियां का आगा-पीछा बतानेवाले नौकरशाह आजकल उसके साथ हैं। सारे विरोधी दलों से मैं यह भी पूछता हूं कि क्या चुनाव आयोग ने यह भी कहा है कि वह भाजपा से उसकी रेवड़ियों का हिसाब नहीं मागेंगा? हिसाब तो सबको देना होगा। बाकी दलों ने पिछले चुनावों में सिर्फ रेवड़ियां बांटी थीं लेकिन मोदी ने 2014 में भारत की जनता को 15-15 लाख का ‘रेवड़ा’ बांटा था। सभी दल मतदाताओं को फुसलाने के लिए चूसनियां लटकाते हैं। इसी पर सर्वोच्च न्यायालय ने 2015 में ‘सुब्रमण्यम  बालाजी’ केस में फैसला देते हुए कहा था कि चुनाव आयोग यह मालूम करे कि अपने लोक-लुभावन वादों को ये दल पूरा कैसे करेंगे?

लोगों पर कौन-कौन-से टैक्स लगाएंगे, किस-किस चीज़ को मंहगा करेंगे, किस-किस सरकारी खर्चे में कटौती करेंगे, अपने लोगों या विदेशों से कर्ज लेंगे तो कितना लेंगे। जाहिर है कि कांग्रेस और विरोधी दल इसे लोकतंत्र की अंत्येष्टि बता रहे हैं लेकिन वास्तव में यह राजनीतिक दलों की चालबाजी की अंत्येष्टि होनी थी। यह अभी तक हुई नहीं है। यदि हो गई तो भी हमारे दलों और नेताओं की चालबाजी इसके बावजूद जारी रह सकती है। वे अपने चुनाव घोषणा-पत्रों में हर रेवड़ी के पीछे इतना लंबा-चौड़ा और उलझनभरा हिसाब पेश कर दे सकते हैं कि वह न तो आयेाग को पल्ले पड़ेगा और न ही मतदाताओं को! उक्त नियम सभी दलों पर सख्ती से लागू तो किया ही जाना चाहिए लेकिन उससे भी ज्यादा जरुरी यह है कि नेतागण चुनावों के दौरान और सत्तारुढ़ होने पर देश की अर्थ व्यवस्था को सुधारने के बुनियादी कामें पर जोर दें ताकि रेवड़ियां बांटने की जरुरत ही न पड़े।

-डॉ. वेदप्रताप वैदिक